टूटे दिल को कहां लेके जाऊं...
अपनी ये हस्ती कहां मैं मिटाऊं...
बनाया था मैंने जो आशियाना...
क्या अपने हाथों से खुद ही जलाऊं...
ज़िंदगी में अगर हादशा ये न होता...
चैन और सुकूं मुहब्बत में न खोता...
अच्छा हुआ बच गया इस गुनाह से...
वरना पापों को कैसे अपने हाथों से धोता...
तपन तन्हा...
अपनी ये हस्ती कहां मैं मिटाऊं...
बनाया था मैंने जो आशियाना...
क्या अपने हाथों से खुद ही जलाऊं...
ज़िंदगी में अगर हादशा ये न होता...
चैन और सुकूं मुहब्बत में न खोता...
अच्छा हुआ बच गया इस गुनाह से...
वरना पापों को कैसे अपने हाथों से धोता...
तपन तन्हा...
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